Friday, January 24, 2025

एकाकी मन की चौखट

गहन अँधेरों का डेरा है, एकाकी मन की चौखट पर
उम्मीदों के दीप जलाकर, अँधियारों से दूरी कर दो

चतुराई के हाथ लुटे हो
जैसे राही भोले भाले
मेरे निश्छल गीतों के यूँ
सब ने क्या क्या अर्थ निकाले
जग को दे दो काशी क़ाबा, मेरी क़िस्मत में मगहर दो
उम्मीदों के दीप जलाकर, अँधियारों से दूरी कर दो

मुक्त उड़ानों का इक पंछी
कैसे पिंजरा उसको भाये 
गगन पराया, धरती गिरवी
इससे अच्छा है मर जाये
या तो उसके पर ले लो तुम, या फ़िर उड़ने को अम्बर दो
उम्मीदों के दीप जलाकर, अँधियारों से दूरी कर दो

अभिमानी पनघट पर कब तक
प्यास मिटे अपमानित होकर
जाने कितनी बार मरेगा
जीवन यह अभिशापित होकर
भटकन को रस्ता कर दो या, पैरों को मंज़िल के घर दो
उम्मीदों के दीप जलाकर, अँधियारों से दूरी कर दो

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

तुमको अच्छे नहीं लगेंगे

तुमको बस वो ही भाते जो जूठे फूलों से दुलराएँ 
सच के तीर चलाने वाले तुमको अच्छे नहीं लगेंगे

हम ठहरे आराधक श्रम के, 
कैसे निज-आदर तज पाते
जय जयकार तुम्हारी करते, 
और तुम्हारे ध्वज लहराते
साथ तुम्हें उनका भाता जो मौन तुम्हारे पीछे आएँ
हम निज राह बनाने वाले तुमको अच्छे नहीं लगेंगे

चाल तुम्हारी ग़लत सही पर
हम कोई भी भेद न जानें
औऱ तुम्हारी वाणी को ही 
परम सत्य कहकर हम मानें
तुमको वो ही भाते हैं जो साथ तुम्हारे कोरस गायें
हम निज सुर में गाने वाले तुमको अच्छे नहीं लगेंगे

ख़ुद जूझे हम अँधियारों से 
सूरज से उजियार न माँगा
प्रतिमाओं के पाँव न पूजे, 
देवों से उपकार न माँगा
तुमको अभिलाषा उनकी है, जो द्वारे पर शीश झुकाएँ
हम दर्पण दिखलाने वाले तुमको अच्छे नहीं लगेंगे

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

द्रोण गर स्वीकार करते

क्या कठिनतम यह घड़ी है वेदना कितनी बड़ी है
नेह का सूरज ना जागा हाय यह जीवन अभागा
बस यही सोचा किए थे श्वान मुख में वाण भरते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

अनसुनी विनती, उपेक्षा, नैन में जल और क्या है
देव निश्चल साधना का तुम कहो फल और क्या है
जब कटा मेरा अँगूठा तब बना है श्रेष्ठ अर्जुन
है नहीं ये भी अगर छल तो भला छल और क्या है

भेद पुतली मीन की हम भी नए इतिहास गढ़ते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

याचना निष्फल रही सब था यही बस मर्म अपना
साधना, अभ्यास, निष्ठा था यही बस कर्म अपना
जो किया अर्जित लगन से कर दिया तुमको समर्पित
किन्तु क्या तुमने निभाया था गुरु का धर्म अपना

यह धनुष यह शर हमारे क्यों भला जग को अखरते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

पाँव में पाहन बँधे थे यह नहीं था पर नहीं थे
प्रश्न कितने थे ह्रदय में पर कहीं उत्तर नहीं थे
हो धनुष टंकार या हों युद्ध में करतब हमारे
श्रेष्ठ हो या ना किसी से हाँ मगर कमतर नहीं थे

यह स्वयं से बोलते हैं राह में गिरते संभलते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

अनसुनी याचना

उठो ! उपासक
व्यर्थ करो मत यहाँ याचना 
इस मन्दिर में देव सभी बहरे रहते हैं

तुमने सच को सच कहने का प्रण ठाना है
तुमसे झूठे गीत सुनाये जाएँ कैसे
कलम तुम्हारी लिख कब पाई चरण वंदना
तुम क्या जानों देव मनाये जाएँ कैसे

यहाँ सत्य पर कृपा बरसती ऊपर मन से
और झूठ पर कृपा भाव गहरे रहते हैं

यहाँ प्रार्थना बन अनाथ घूमेगी दर-दर
और चीख बन मर जाये - इनकार नहीं है
पँखों पर उम्मीदों का बोझा है भारी
मगर उड़ानों का कोई विस्तार नहीं है

यहाँ गिद्ध को अम्बर की मिलती सौगातें
पर तितली के पँखों पर पहरे रहते हैं

अपने अधिकारों की ख़ातिर लड़ना होगा
तुमको अपनी पीर स्वयं ही कहनी होगी
तुमने हरदम न्याय प्रथा पर प्रश्न किये हैं
तय है तुमको यहाँ उपेक्षा सहनी होगी

यहाँ कामना होती है बस पूरी उनकी 
जिनके इक चेहरे पे दस चेहरे रहते हैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

प्रेम का अनुवाद क्या है

जा रहे हो दूर जाओ, सारे बंधन तोड़ जाओ
पर मुझे इतना बता दो कि मेरा अपराध क्या है 
मैं अपरिचित प्रेम वन में प्यास लेकर घूमता था
तुमने अपने इंगितों से चाह का दरिया दिखाया
मैं भला कब जानता था ये नयन की वर्णमाला
तुमने मन के श्यामपट पे 'प्यार' लिखना था सिखाया

भूलते हो भूल जाओ, पर मुझे इतना बताओ
'दर्द की दुनिया' नहीं तो प्रेम का अनुवाद क्या है 

प्रश्न चिह्नों ने समय के जब मुझे घेरा हुआ था
तुमने ही आकर समर में उत्तरों के बाण साधे
जब ह्र्दय के गांव में डर की नदी उफनी हुई थी
तुमने ही आकर भँवर में हिम्मतों के बाँध बाँधे

छोड़ते हो छोड़ जाओ, पर मुझे इतना बताओ
प्रेम का अभिप्राय जग में, अब तुम्हारे बाद क्या है 

मैं अभी उस गीत के पहले चरण पर ही रुका हूँ
गुनगुना कर छोड़ आये तुम जिसे आधा अधूरा
पूर्णता की याचनाएँ मौन रस्ता देखती हैं
तुम मिलोगे तो मिलेगा गीत को अस्तित्व पूरा

रूठते हो रुठ जाओ, पर मुझे इतना बताओ
जो अकथ है बात, उस पर बेवजह प्रतिवाद क्या है 

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

सियासत और मुहब्बत

टूटे सपनों का हर पुरजा जोड़ दिया
हिम्मत, रिश्ते, दिल का रस्ता जोड़ दिया
एक सियासत; जिसने दुनिया तोड़ी है
एक मुहब्बत; जिसने क्या क्या जोड़ दिया

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

मन्नतें

कभी होता नहीं है मन, तो बे-मन बाँध आता हूँ
कहीं हो जाए ना देवों से अनबन, बाँध आता हूँ
मुझे मालूम है बे-शक वो मेरा है मगर फिर भी 
शजर पर मन्नतें अपनी मैं रस्मन बाँध आता हूँ

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

जज़्बा

मैं तुझसे जंग या रंजिश से नहीं डरता हूँ
किसी मुश्किल किसी बंदिश से नहीं डरता हूँ
लाख करले खड़े तूफ़ान मेरी राहों में
ज़िंदगी मैं तेरी साज़िश से नहीं डरता हूँ

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

नयी पीढ़ी के तेवर

बिलखती भूख के किस्से तड़पती प्यास लिक्खेंगे
अँधेरों की कलम से रोशनी की आस लिक्खेंगे
ना मंज़र बेबसी का ना कभी अफ़सोस की बातें
नयी पीढ़ी के ये तेवर नया इतिहास लिक्खेंगे

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

द्वारे-द्वारे, दस्तक देकर

द्वारे-द्वारे, दस्तक देकर
भीख मिली बैशाखी लेकर
रीढ़ बिना कुछ दूर चलोगे, लेकिन दौड़ नहीं पाओगे

बिन श्रम के राही को मंज़िल
मिल तो सकती है कुछ छल से
लेकिन वह छल कब औरो से
वह छल है अपने कौशल से
देवों के उपकार, कृपाएँ
कुछ भी काम नहीं आता है
तूफानों में राह बनाता 
मानव केवल अपने बल से

नाविक से कर जोड़, रहम पर
भाड़े की कश्ती के दम पर 
बस धारा के साथ बहोगे, धारा मोड़ नहीं पाओगे

जीत नहीं वह जो समझौते
कर के हक़ में लाई जाए
जीत वही जिसकी यशगाथा 
इतिहासों में गाई जाए
जीत भला वह क्या सुख देगी 
जो उपकारों में माँगी हो
जीत वही जो अपने पौरुष 
के करतब से पाई जाए

शरणागत हो, शीश छुपाकर
बस कागज़ पर वीर कहाकर
वीरों की पोथी में अपना पन्ना जोड़ नहीं पाओगे

चलताऊ रागों को तजकर
मौलिक स्वर में गाना होगा
जीत सुनिश्चित करनी है तो
समरांगण में जाना होगा
साथ खड़े हो रण में केशव
केवल राह बता सकते हैं
अपना लोहा मनवाने को
पौरुष तो दिखलाना होगा

इस सच से इनकार किया तो
सर पर अहम सवार किया तो
चक्रव्यूह के सम्मुख होगे, लेकिन तोड़ नहीं पाओगे

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

नर होना आसान नहीं है

धूप घनी या अम्बर बरसे
बोझ कभी उतरा क्या सर से ?
उम्मीदों की गठरी लेकर
रोज़ निकलता है वह घर से
भोग रहा है कितनी पीड़ा इसका कुछ अनुमान नहीं है
सच बतलाता हूँ नारायण, नर होना आसान नहीं है 

जतन किये पर कब मिट पाई, दूरी अधरों से पनघट की
करती थी उपहास हमेशा, सुविधाएं छींके से लटकी
माखन मिसरी की तो छोड़ो, दाल-भात दुर्लभ लगता था
टोह लगाते बीता बचपन, हाथ न आई सुख की मटकी
बंदीगृह में जान बचाना कठिन बहुत था लेकिन कान्हा

नित्य अभावों वाले जीवन का तुमको संज्ञान नहीं है
सच बतलाता हूँ नारायण, नर होना आसान नहीं है 

विपदाओं के फन पर, श्रम की वेणु बजाना सरल नहीं है
रस्मों का प्रतिरोध कठिन, पर रस्म निभाना सरल नहीं है
माना, कर्तव्यों के पथ पर रिश्ते बिसराना मुश्किल था
पर रिश्तों की ख़ातिर अपनी उम्र गलाना सरल नहीं है

गौवर्द्धन का भार उठाना निश्चित ही दूभर था गिरिधर
पर घर भर का बोझा कैसा; इसका तुमको भान नहीं है

सच बतलाता हूँ नारायण नर होना आसान नहीं है 
इच्छाओं के रण में निशदिन ख़ुद को हारा पाता है वो
मन के अर्जुन को पग-पग पर गीता ज्ञान सुनाता है वो
तुमने तो इक युद्ध लड़ा था, बनकर बस सारथि कन्हैया 
मुट्ठी भर दानों की ख़ातिर रोज़ युध्द पर जाता है वो
पांडव को संग्राम जिताना कठिन बहुत था लेकिन केशव

वो उस रण में जूझ रहा है जिसकी हाथ कमान नहीं है
सच बतलाता हूँ नारायण नर होना आसान नहीं है

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

नदी तुमसे ना कोई आस

नदी तुमसे ना कोई आस
खोदूँगा निज कूप उसी से 
तृप्त करूँगा प्यास !
नदी तुमसे ना कोई आस

तुमको है अभिमान तुम्हारे
मीठे मीठे जल पर
और मुझे विश्वास है मेरे 
श्रम पर बाजूबल पर
चाहें राजभवन मैं पाऊँ 
या भोगूँ वनवास
नदी तुमसे ना कोई आस

आशाओं के घट लेकर 
क्यूँ भटकूँ द्वारे द्वारे
अहसानों से पाए शरबत 
भी लगते हैं खारे 
शीश उठा कर के जीना ही 
जीने का अहसास
नदी तुमसे ना कोई आस

कोशिश के वाणों से तय है 
पर्वत भी टूटेंगे
और धरा के सीने से 
जल के झरने फूटेंगे
स्वप्न सफलता का रस चखकर 
तोड़ेंगे उपवास
नदी तुमसे ना कोई आस

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

क्या पाया है ?

कहो मंथरा ! 

रानी के कानों को भरकर,
अवधपुरी को यूँ सुलगाकर क्या पाया है ?
राम तपे वन में जा तो,
शीतलता पाई ?
या दशरथ ने प्राण तजे तो, 
उम्र बढ़ी है ?
ममता के वरदानों को अभिशाप बनाकर
इतिहासों में कोई अनुपम रीत गढ़ी है ?

लालच की चौसर पर छल की चालें चल कर
रघुकुल पर लांछन लगवाकर क्या पाया है ?

जनकसुता की निंदा करके
वैभव पाया ?
छोटी माँ की मति छोटी कर
सुख पाए हैं ?
तुम बतलाओ इस करतब की यश गाथा के
कितने वेद पुराणों ने मंगल गाये हैं ?

वैदेही का घर छुड़वाकर, बोलो धोबी
पावनता पर प्रश्न उठाकर क्या पाया है ?

इतिहासों ने केवल दुत्कारा है उनको
आग लगाने वाले कब पूजित होते हैं 
निंदक को सम्मान नहीं मिलता है जग में
व्यर्थ मनुज का जन्म लिए जीवन खोते हैं

दुनिया भर में आग लगाने वालो सोचो
तुमने इस दुनिया में आकर क्या पाया है ?

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

आख़िर अब तक चुप कैसे हो ?

पथ में शूल बिछाने वालो, पग-पग प्रश्न उठाने वालो
मेरे ख़्वाब जलाने वालो, आख़िर अब तक चुप कैसे हो ?

बोलो, मैं फिर से निकला हूँ, झूठों को दर्पण दिखलाने
बोलो, मैं फिर से निकला हूँ, बेबस की पीड़ा को गाने
बोलो, कितनी सज़ा मिलेगी, मैंने यह अपराध किया है 
बोलो, मैं फिर से निकला हूँ, अपने हक़ की दुनिया पाने

उल्टी रीत चलाने वालो, दिन को रात बताने वालो 
सच को झूठ बनाने वालो, आख़िर अब तक चुप कैसे हो ?

आओ फिर मेरे चरित्र पर अपमानों के प्रश्न उछालो
आओ अभिमानों के रथ से फिर से मुझपर धूल उड़ालो
आओ फिर मेरी ख़ातिर तुम षड्यंत्रों में समय गलाओ
आओ मेरे संघर्षों पर कुंठा का दरबार सजा लो

तम से लाड़ लड़ाने वालो, दिनकर को धमकाने वालो
पीड़ा पर मुस्काने वालो, आख़िर अब तक चुप कैसे हो ?
अहसानों की चाहत लेकर नहीं खड़ा रहता मैं द्वारे 
मेरा कौशल ले जाएगा बीच भँवर से मुझे किनारे 

मेरा भुजबल तय कर देगा, डूबूँँगा या पार लगूँगा
रक्खो अपनी पतवारों को, रक्खो अपने पास सहारे
झूठा प्यार जताने वालो, बातों में उलझाने वालो
छुप कर तीर चलाने वालो, आख़िर अब तक चुप कैसे हो ?

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

महलों के आमंत्रण

इस कारण ही ठुकराए हैं, मैंने महलों के आमंत्रण
दरबारों में गर रहता तो, गूँगा होकर रहना पड़ता

वो तो खुद ही प्यासा निकला, जिसको मैंने सागर समझा
गरल छुपाये था वो मन में, जिसको मधु की गागर समझा
अँधियारों की अगुवाई में, उसने  छल  हर  बार  किया है
घोर निशा छाने पर मैंने, जिसको एक दिवाकर समझा

इस कारण ही छोड़ दिया है मैंने जग को गीत सुनाना
अँधियारों के चाकर जो हैं, भोर उन्हीं को कहना पड़ता

हमनें कब स्वीकार किये हैं, वाणी  पर दुनिया के पहरे
हम इस जग के अभियोगों पर,  प्रश्न उठाने वाले  ठहरे
जिनको छल करना आता था उनको जग ने साधू माना
हमनें सच बोला तो उस पल बन बैठे सब गूँगे बहरे
     
इस कारण ही छोड़ दिया है, मैंने मठ में आना जाना,
जो स्वारथ के घोर पुजारी, देव उन्हीं को कहना पड़त

जो अपमान करे तृष्णा का उस पनघट पर जाता कैसे
चतुराई के आगे निश्छल मन के गीत सुनाता कैसे
कीकर को चन्दन लिख दे जो ऐसी अपनी कलम नहीं है
याचक पर हँसने वाले को दानी मैं बतलाता कैसे

इस कारण ही छोड़ चुका हूँ, अहसानों वाली नौका मैं
ले जाता जिस ओर खिवैया, छोर उसी को बहना पड़ता

© ✍🏻 निकुंज शर्मा


पीछे क्या कुछ छूट गया है !

जग के मायामृग के पीछे, भाग रहे हो शर को खींचे
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !

कंचनमृग की चाहत तुमको काँटों के पथ पर ले आयी
तुमको साथ नहीं आना था, तुमको साथ मगर ले आयी 
अगर विचारो तो पाओगे जीवन का मकसद जीवन है
तुमको कौन डगर जाना था तुमको कौन डगर ले आयी

पर्णकुटी से सुख की सिय को दुख का रावण लूट गया है
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !

मृगनयनी सिय, हिय का चैना, क्या कुछ तुमसे लीना  सोचो
क्या इतना मुश्किल था जितना आज हुआ है जीना सोचो
स्वप्न अधूरे छूटे अब तो हर इक पल पीड़ा का पल है
इस मायावी जग के मृग ने कितना कुछ है छीना सोचो

अब तो सपनों के दृग से भी कोई झरना फूट गया है !
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !

होने को तो नफ़रत पी जाने वाले दाधीच बहुत हैं
पर उन ऋषियों को छलने वाले भी अपने बीच बहुत हैं
कंचन की काया के भ्रम में पंचवटी से दूर ना जाना
वेश बदल कर विचरण करते इस जग में मारीच बहुत हैं

और छला जाना बाक़ी है? या मन का भ्रम टूट गया है !
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

मैं सिया का राम

हे महासागर!
सुनो, कर जोड़ तुमसे,
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ 

इन करों ने बस दिया, संसार से कुछ भी न मांगा 
आदमी क्या; देवता के द्वार से कुछ भी न मांगा 
आज तक उपकार, सेवा, दान, परहित ही किया है
इस तरह पहले कभी अधिकार से कुछ भी न मांगा 
त्याग आया राज-वैभव-धाम; रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ 

प्रेम की प्रस्तावना भी तो बहुत दूभर नहीं है
राह की सम्भावना भी तो बहुत दूभर नहीं है
लांघना मरजाद दुष्कर कृत्य है मुझ-से व्रती को
और सागर लांघना भी तो बहुत दूभर नहीं है
रीतियों को बिन किये बदनाम, रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ 

प्रेम की इस याचना को अन्यथा मत मान लेना
"बस अहम् ही मुख्य है" -ये भी प्रथा मत मान लेना
सोख दे पाताल, इतना है अभी सामर्थ्य शर में
शिष्टता को राम की असमर्थता मत मान लेना
मांगता किंचित नहीं संग्राम, रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ 

दो किनारों को मिलाने में अहित कुछ भी नहीं है
और अनुकम्पा दिखाने में अहित कुछ भी नहीं है
इस क्रिया से नीर कुल का मान अक्षत ही रहेगा
सेतु सागर पर बनाने में अहित कुछ भी नहीं है
श्रेष्ठ है इस यत्न का परिणाम, रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

सृजन की लौ

भावनाओं की धरा पर
लेखनी का हल चलाकर
इस अँधेरी रात में सूरज उगाना चाहते हैं
हम सृजन की लौ जगाना चाहते हैं 

बे-अदब कुछ आँधियों से इस इमारत को बचाना
साथ मिलकर के दर-ओ-दीवार को, छत को बचाना
काव्य के इस गाँव की कोशिश हमेशा से रही है
जो मिली हमको बुजुर्गों की विरासत को बचाना
हिल रही बुनियाद का पत्थर बचाना चाहते हैं
हम सृजन की लौ जगाना चाहते हैं 

इक नयी उम्मीद लेकर के धरा पर भोर लौटे
फिर विचारों को दिलों तक जोड़ने का तौर लौटे
गीत ग़ज़लों में कहीं भी द्वेष या उन्माद ना हो
चाह इतनी है सृजन का फिर पुराना दौर लौटे
इक नए अंदाज़ में जादू पुराना चाहते हैं
हम सृजन की लो जगाना चाहते हैं

दौर जिसमे लेखनी सिंहासनों पर प्रश्न ताने
दौर जिसमे लेखनी फिर सिसकियों का मर्म जाने
दौर जिसमे लेखनी दरबार में गिरवी नहीं हो
दौर जिसमें लेखनी बस सत्य को ही धर्म माने

झूठ के नेपथ्य से पर्दा उठाना चाहते हैं
हम सृजन की लो जगाना चाहते हैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

शायद राम कभी ना आयें

एक अभागा, निष्ठुर जग में

मौन, प्रतीक्षारत हूँ मग में 
तन घायल है, मन जर्जर है
सपने टीस रहे हैं दृग में
हो सकता है जग के तारक मेरे धाम कभी ना आयें 
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें

खुशियाँ, वैभव, प्रियतम, सावन, 
प्रेम, मिलन, उत्सव, अपनापन
इक मनचाहा तन बाहों में
सागर का तट, फुर्सत के क्षण 
हो सकता है इस जीवन में ऐसी शाम कभी ना आयें
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें

मेरी नज़्में, गीत, रुबाई
मुक्तक, छंद, ग़ज़ल, कविताई
जिनमें केवल सतत प्रतीक्षा
जिनमें केवल पीर समाई 
दुख का ग्रन्थ बनें पर शायद सुख के काम कभी ना आयें
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें

कब राहों में फूल रहेंगे
तय है केवल शूल रहेंगे
जो मुझको अभिजीत बनायें
जो मेरे अनुकूल रहेंगे 
संभव है जीवन के रण में वो परिणाम कभी ना आयें
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें 

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

समय के देवता का मान

हम समय के देवता का मान रखने के लिए ही
इक अधूरी प्यास लेकर पनघटों से लौट आये

एक अनचाही डगर में डगमगाते पाँव धरके
और नयनों के घटों में आँसुओं का नीर भरके
इक अभागे स्वप्न ने चाहा कि उसको रोक लूँ पर
जा चुका था वो हमारी देह को निष्प्राण करके

इक नदी के तीर जलती लकड़ियों के साथ में ही
एक दुनिया फूँक कर हम मरघटों से लौट आये

गीत का मधुमास लेकर, प्राण का उल्लास लेकर
दूर हमसे हो गए हैं सुख सभी संन्यास लेकर 
उम्र का आकाश पीड़ा के कुहासे में ढका है
स्वप्न सब निश्छल हमारे जी रहे वनवास लेकर

सब मनोरथ हो नहीं सकते कभी पूरे, तभी तो
बाँसुरी के स्वर सदा वंशीवटों से लौट आये

जब कभी निकलें सफ़र में काटता है पैर कोई
और वो अपना नहीं है और ना ही ग़ैर कोई
कौन कारण कौन कारक सत्य यह भी है उजागर
ठन गया है क्या विधाता का हमीं से वैर कोई

धीर हारा है न हारेगा कभी संकल्प मन का
बोलकर ये बात मठ की चौखटों से लौट आए

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ !

मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ, मेरा गुमनामी से नाता
मुझसे अक्सर रूठे रहते मेरे अपने, भाग्य-विधाता

उजियारों ने द्वार न खोले, अँधियारों ने कंठ लगाया
मैं उत्सव को रास नहीं था, मगर उदासी ने अपनाया
फेर लिया मंज़िल ने मुँह को, संघर्षों ने पाँव न छोड़े
दुःख ने मुझको अपना समझा, सुख ने समझा सिर्फ़ पराया

दुःख ने बिन माँगे ना जाने मुझको कितने गीत दिये हैं
सुख की क्या औक़ात कि मुझको गीतों का उपहार दिलाता

विपदाएँ मेरी सहचर हैं और ह्रदय का त्रास सखा है
होंठों ने मुस्कान न देखी बस आँसू का स्वाद चखा है
शायद ईश्वर भी परिचित है मेरी क्षमताओं से, तब ही
पीड़ा की सूची में उसने ऊपर मेरा नाम रखा है

दुःख ने दी सामर्थ्य सहन की तो मैं अपने पैरों दौड़ा
सुख की बैसाखी होती तो जीवन भर यूँ ही लंगड़ाता 

जब तक उर में श्वास रहेगी मेरा ख़ुद से द्वंद रहेगा
मुस्कानों से बैर रहेगी, आँसू से संबंध रहेगा
मेरा हाथ नहीं छोड़ेगा दुःख ने ये उद्घोष किया है
आँसू से,पीड़ा से मेरा जीवन भर अनुबंध रहेगा

दुःख मेरे हमसाये जैसा पल पल मेरे साथ जिया है
सुख होता तो चार कदम की दूरी चलने से कतराता
मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ, मेरा गुमनामी से नाता 

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

दो हारी आँखों के सपने !

शव शय्या पर पड़े हुए हैं, दो हारी आँखों के सपने
पीड़ा के पर्वत टूटे हैं, इक जीवन का अंत हुआ है

वाणी ने अलविदा कह दिया, टूट गई साँसों की माला 
अनल वेग से धधक रही है, चिता सेज पर जलती ज्वाला 
टूटी चूड़ी, आँसू, सिसकी कोई उसको रोक ना पाया
अंत समय में कितना निष्ठुर हो जाता है जाने वाला 

कितनी पीड़ा सौंप गये हो जाने वाले तुम क्या जानों
यादों के बंधन देकर के इक बंधन का अंत हुआ है।

हार गयी मेहँदी की खुशबू, पायल, कंगन के स्वर हारे  
शीश झुकाये मौन खड़ी हैं, ख़ुशियाँ आयी थी जो द्वारे 
रोली, कुमकुम, बिंदिया, गेसू सब बेसुध हो मौन खड़े हैं 
माथे का सिंदूर खड़ा है यम के आगे हाथ पसारे  

जिन आँखों में ख़्वाब सजे थे, उनमें अब ख़ारा पानी है
आँसू की बरसातें देकर , इक सावन का अंत हुआ है   

हम तुम सब हैं राही जग में क्या पाना है क्या खोना है 
महज़ क्षणिक आभासी पल की खातिर ये रोना धोना है 
कोई कितना भी झुठलाए लेकिन अंतिम सत्य यही है 
सब माया है सब मिथ्या है, मिट्टी को मिट्टी होना है 

पुनः मनुज की अभिलाषा के सैनिक सब हो गए पराजित
विधि की जीत हुई है फिर से फिर इक रण का अंत हुआ है

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

बेहद मुश्किल है

मन को मीत बनाना बेहद मुश्किल है
अपना साथ निभाना बेहद मुश्किल है
दुनिया की हर शय को पाना आसां है
बस इक ख़ुद को पाना बेहद मुश्किल है

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

मौन रहना ही उचित है

जिस समय जग झूमता हो दादुरों का शोर सुनकर 
उस समय में कोयलों का मौन रहना ही उचित है

कंटकों को फूल कहकर जब उगाया जा रहा हो
हर शिला को देव कह कर जल चढ़ाया जा रहा हो
झूठ के कपड़े बदल कर सच बनाने का चलन हो 
जुगनुओं को जब नया दिनकर बताया जा रहा हो

देवताओं के अगर मन भा रहे हों बस धतूरे
तो वहाँ तुलसीदलों का मौन रहना ही उचित है

नफ़रतों के बीच जाकर प्रेम गाना व्यर्थ ही है
दंभ में डूबे मनुज को सच सुनाना व्यर्थ ही है
जब कि जग को रास आये बस अँधेरों की गुलामी
उस घड़ी उजियार का परचम उठाना व्यर्थ ही है

जिस समय कर्कश नगाड़ों के सभी को साज भाए
उस समय में पायलों का मौन रहना ही उचित है

जब सितारों की सभा में चांद की अवहेलना हो
पुण्य जब वनवास पाएं पाप की आराधना हो
दंडधर जब सो रहा हो, न्याय भी बहरा हुआ हो
नीतियों में दोष पाकर प्रश्न करना भी मना हो

जिस समय हर ओर केवल धूप के ही हों समर्थक 
उस समय में बादलों का मौन रहना ही उचित है  

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

Thursday, January 23, 2025

भाग्य का वनवास

स्वप्न इस जग में सहेंगे और अब उपहास कितना ?
भोगना मन को पड़ेगा और अब सन्त्रास कितना ?
ओ ! समय के देवता बस बात इतनी सी बता दे 
और लिक्खा है हमारे भाग्य में वनवास कितना ?

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

गीत गाने का समय है !

नाद में हुँकार लेकर, व्योम सा विस्तार लेकर
भावनाओं के धनुष की कौंधती टँकार लेकर 
लेखनी के ताप से पर्वत गलाने का समय है
गीत गाने का समय है !

एक युग से दिनकरों पर रात का पहरा रहा है
आँधियों का डर चराग़ों पर बहुत गहरा रहा है
एक अरसे से विचारों की प्रभा को क़ैद करके
यह तमस बेबस उजालों के सभी हक़ खा रहा है
साथ मिल उजियार का परचम उठाने का समय है
गीत गाने का समय है !

चुप्पियों को साध लेने से बहुत संताप होगा
भूलना युग धर्म अपना गीत पर अभिशाप होगा
जिस समय सिंहासनों से प्रश्न करना हो ज़रूरी 
उस समय में लेखनी का मौन रहना पाप होगा 
पत्थरों को आज फिर दर्पण दिखाने का समय है 
गीत गाने का समय है !

सत्य का रथ हाँकने का बाज़ुओं में दम नहीं है
हर किसी में एक "मैं" है, पर कहीं भी "हम" नहीं है
निज हितों का ही भरण जिनकी रही है प्राथमिकता 
देश की इस दुर्दशा में दोष उनका कम नहीं है
दीमकों से इस विरासत को बचाने का समय है
गीत गाने का समय है !

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

साथी, जन की पीड़ा गाओ !

साजन संग मधुमास सुनाया
निज-मन का संत्रास सुनाया
बिछुड़न के पल भी गाये हैं
नव-कल का उल्लास सुनाया
शब्दों में युगबोध जगा अब
बेबस मन की पीड़ा गाओ ! साथी, जन की पीड़ा गाओ !!

पीड़ा के रसिकों के दल भी गागर लेकर आते होंगे
तन्हाई में, चौराहों पर गीत-सुधा छलकाते होंगे
उनके आशंकित भावों के शब्द तुम्हीं आवाज़ तुम्हीं हो
जो इस जग के अन्यायों को चुप रहकर सह जाते होंगे
सर्पों के विषदंश सह रहे
चन्दनवन की पीड़ा गाओ ! साथी, जन की पीड़ा गाओ !!

उन आँखों का क्रंदन गाओ, जिनके सपने रण में हारे
झंझावत में दूर हुए हों, जिस कश्ती से दूर किनारे
गीत रचो उस व्याकुलता पर,उस ड्योढ़ी का मर्म सुनाओ
बांसों की शैय्या पर सोये, जिसके अपनों के शव द्वारे
अब उस चौखट का सूनापन
उस आँगन की पीड़ा गाओ ! साथी, जन की पीड़ा गाओ !!

शीश चढ़ा है अगर अहम तो दर्पण भी दिखलाना होगा
गर कविधर्म निभाना है तो फ़िर युगधर्म निभाना होगा
दुनिया के सारे भावों को शब्द तुम्हें ही देने होंगे
मंगल गीत तुम्हीं ने गाये, तो क्रंदन भी गाना होगा
सीता की सुध में बेसुध इक
रघुनन्दन की पीड़ा गाओ ! साथी, जन की पीड़ा गाओ !!

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

तुम बस कंठ लगाना केशव

इस जग से निष्कासित ठहरा; ना है ठौर ठिकाना केशव
मैं प्रेमी हूँ मुझको केवल आता प्रेम निभाना केशव
जीवन की हर एक कठिनता से मैं अपने आप लड़ूँगा
जब गिर जाऊँ थक कर भू पर, तुम बस कंठ लगाना केशव

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

गंगा तट पर !

मैंने देखे गंगा तट पर , घाट असि मंदिर चौखट पर
राम सिया की धुन में डूबे , बाबा तुलसी मानस गाते

जप, तप, त्याग, समर्पण देखे
बिछुड़न, आँसू, तर्पण देखे
मिलन, आस्था, धर्म, उपासक
उत्सव, ख़ुशियों के क्षण देखे

मैंने देखे गंगा तट पर, केवट की विनती पर, हठ पर
वनवासी धनुधारी रघुवर अपने पद पंकज धुलवाते
मैंने देखे गंगा तट पर, बाबा तुलसी मानस गाते...

प्रेमी प्रेम जताते देखे
रूठा प्यार मनाते देखे
संत कबीरा जीवन-साखी
इकतारे पर गाते देखे

मैंने देखे गंगा तट पर ,मन्नत के धागे इक वट पर
देखी उस वट की चौखट पर एक सुहागिन दीप जलाते
मैंने देखे गंगा तट पर, बाबा तुलसी मानस गाते...

इक बालक को हँसते देखा 
एक चिता को जलते देखा
कुछ घाटों पर उगता सूरज
कुछ घाटों पर ढलते देखा 

मैंने देखे शव मरघट पर, और उसी मरघट के तट पर
काशी विश्वनाथ शिव शम्भू, जन्म मरण का बंध छुड़ाते
मैंने देखे गंगा तट पर, बाबा तुलसी मानस गाते...

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

सारा दोष तुम्हारा होगा

आज अमन के प्रस्तावों का तुम अपमान भले ही कर लो 
कल रण में संत्रास मिला तो सारा दोष तुम्हारा होगा 

जीवन के इस अंकगणित में सुख दुख का अनुपात बिठाते
थककर चूर हुए हैं अनगढ़ पत्थर में देवत्व जगाते
प्रेम बसे तो पंचवटी की पर्णकुटी भी राजमहल है 
सोने का मृग कोरा छल है हार गए तुमको समझाते

तुम इस छल में अपने सुख का कुछ अनुमान भले ही कर लो 
कल लंका में त्रास मिला तो सारा दोष तुम्हारा होगा

कीकर को तुलसी कहने से, क्या कीकर पावन होता है 
बेमौसम की बरसातों से कब पतझर सावन होता है 
चाहे जिसको साथ रखो पर भूल न जाना ये सच्चाई 
कैसा भी पाखण्ड पहन ले, रावण बस रावण होता है 

आज भले ही आडम्बर की जगमग से आकर्षित हो लो 
कल लज्जित इतिहास मिला तो सारा दोष तुम्हारा होगा

प्रतिशोधों का दौर चलेगा, अपराधी समझा जायेगा 
चौपालों पर चर्चा होगी, नित आरोप गढ़ा जाएगा
लेकिन सारे कोलाहल में बस नुक़सान हमारा होगा 
दुनिया को निंदा से मतलब है; दुनिया का क्या जायेगा 

जाओ ! कोपभवन में बैठो आज मंथरा के कहने पर 
कल सुख को संन्यास मिला तो सारा दोष तुम्हारा होगा 

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

भक्त का उलाहना

कब भला होगा उपेक्षित याचना पर ध्यान बोलो 
कब तलक अनुरोध की अवमानना होती रहेगी ?
आप बाहर आ कभी क्या साथ भी दोगे मनुज का 
या कि बस मंदिर बनेंगे, प्रार्थना होती रहेगी ?

घाव रिसते पाँव पथ पर चल रहे हैं देखते हो ?
शठ स्वजन को साधु बनकर छल रहे हैं देखते हो ?
चीख पर तो मौन थे; क्या बेबसी सुन पा रहे हो ?
स्वप्न दृग तट पर चिता से जल रहे हैं …देखते हो 

देह यह निष्प्राण होकर के रहे पाषाण कब तक 
कब तलक निर्मम समय की यातना होती रहेगी

जी रहा हूँ कब भला संसार में, बस रह रहा हूँ
मौन हूँ कबसे नियति के घात हँस कर सह रहा हूँ
ख़ूब पूजे जा रहे बनकर बड़े “सागर दया के”
पीर का सागर समाये इन दृगों में, कह रहा हूँ 

गर समर में सारथी बनकर न आए साथ देने 
सोचना भी मत सतत आराधना होती रहेगी

मैं युगों से हूँ प्रतीक्षा में, व्यथा को जानते हो 
संकटों की हर कहानी, हर कथा को जानते हो 
जानते हो मातृ भू के छूटने का त्रास कैसा 
प्रेम में निर्मम विरह की वेदना को जानते हो 

जानकर भी बन रहे अनजान पर इतना समझ लो 
जब तलक ना साध लोगे साधना होती रहेगी

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

उसका वार मुझी पर होगा !

जिसको अपना साथी समझा, 
रण का हर कौशल सिखलाया
समरांगण में रथ को हाँका, 
और विजय का पथ दिखलाया 
कब सोचा था उसके धनु का मेरी ओर सधा शर होगा
मुझको भान नहीं था इक दिन उसका वार मुझी पर होगा

ढोंग भरे आघात सहे तो मन को यह संताप हुआ है
इक अंधा विश्वास जताकर जैसे कोई पाप हुआ है !
सच बोलूँ तो कुछ शब्दों की परिभाषाएँ बदल गयी हैं 
निश्छलता अपराध हुई है, भोलापन अभिशाप हुआ है

मैं अनजान रहा इस सच से छल में डूबी इस दुनिया में
निष्ठा, प्रेम, समर्पण, संबल, सब कोरा आडम्बर होगा

मुझको बोध नहीं था रण में मेरा होना यूँ अखरेगा
कोई रावण वेश बदलकर विश्वासों का हरण करेगा
अचरज है मेरे खेमे से मुझको भूशायी करने को
विषबाणों की वर्षा होगी, षड्यंत्रों का खेल चलेगा

ख़बर नहीं थी सत्य अकेला जब जूझेगा अन्यायी से
चक्रव्यूह में रथ का पहिया पहले से ही जर्जर होगा

अपनेपन की नदिया के स्वारथ में डूबे तट निकलेंगे
कुंठाओं के मुख पर झूठी निजता के घूंघट निकलेंगे
ज्ञात नहीं था ऐसे चतुर सयाने मुझसे टकरायेंगे
जो ऊपर मधु जैसे होंगे, भीतर विष के घट निकलेंगे

जिन हाथों को हाथ थमाकर, तूफानों से प्राण बचाये
जब नौका उस पार लगेगी उन हाथों में पत्थर होगा

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

बग़ावत

सच की ख़ातिर लड़ने की लत रहती है
सर पर रोज़ नई इक आफ़त रहती है
उनकी दुनिया थोड़ी मुश्किल दुनिया है
जिनके भीतर एक बग़ावत रहती है

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

अंतर्मन की पीड़ा

उद्घोषों को शोर समझने लगते हैं
कुछ बोलूँ कुछ और समझने लगते हैं
सच कह दूँ तो लोग समझते हैं बाग़ी
चुप हूँ तो कमजोर समझने लगते हैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

गीत सुनाने आऊँगा मैं !

अनचाहे सपनों की ख़ातिर
जो राहों में छूट गए थे,
उन सपनों के विजय पर्व पर
गीत सुनाने आऊँगा मैं

अभी ख़्वाहिशों के पैरों में बंधन हैं, ज़ंजीर पड़ी हैं
जिम्मेदारी और मुश्किलें मेरी राहें रोक खड़ी हैं
जिस पल इन्हें पराजित करके
मैं दुनिया का भ्रम तोड़ूंगा
तब उस पल तेरी चौखट पर
दीप जलाने आऊँगा मैं

मैं मानुस तुम देव मुझे तुम जो दोगे स्वीकार रहेगा
पर अपनी किस्मत से मुझको लड़ने का अधिकार रहेगा
माना चोटों की बारिश है
सपनों के पत्थर पे लेकिन
जब इनको देवत्व मिलेगा
पुष्प चढ़ाने आऊँगा मैं

ख़ार मिलेंगे या चन्दनवन , यह मुझको परवाह नहीं है
प्रेम भरी कुटिया स्वीकृत है, राजमहल की चाह नहीं है
जिसकी किरणों की आभा से
अँधियारे सब हट जाते हैं
उम्मीदों के उस दिनकर को
अर्घ चढ़ाने आऊँगा मैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

थकन नहीं होती क्या भाई ?

चलते-फिरते, हँसते-रोते
खाते-पीते, जगते-सोते 
निंदा रस के घूँट लगाकर
नफरत के घट ढोते-ढोते
रात-दिवस करते रहते हो; इधर निरादर, उधर बुराई
थकन नहीं होती क्या भाई ?

घृणा, अवज्ञा, दोषारोपण, निंदा, वैर, कुढ़न, मक्कारी 
इन बेचारे दो कंधो पर, कितनी सारी ज़िम्मेदारी
औरों को भी हक़ है थोड़ा
उनकी ख़ातिर कुछ ना छोड़ा
केवल तुम ही कर दोगे क्या सब के हिस्से की भरपाई
थकन नहीं होती क्या भाई ?

पल-पल इतने स्वांग रचाते, नुक्ताचीह्नी करते-करते 
ऊब नहीं जाते हो क्या तुम दुनिया के कानों को भरते 
थोड़ा सा तो सुस्ता लेते
राग नया कोई गा लेते
आख़िर कब तक गाओगे तुम केवल चुगली की चौपाई
थकन नहीं होती क्या भाई ?

उत्सव को संताप बना दे, इतने ज़्यादा दक्ष तुम्हीं हो
बगुले के अवतार तुम्हीं हो, गिद्धों के समकक्ष तुम्हीं हो
कपट, प्रपंचों से अवगत हो
सब पापों में पारंगत हो
इतने गुण पाए हैं तुमने, कठिन बहुत है यार बड़ाई
थकन नहीं होती क्या भाई ?

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

जग की पीड़ा गाने वाले !

सबका साथ निभाने वाले
दुनिया से लड़ जाने वाले
अपने मन की टीस छुपाकर
जग की पीड़ा गाने वाले
वरदानों का रूप धरे कुछ अभिशापों से हार गए हैं
कुछ ऐसे मन हैं जो जग के संतापों से हार गए हैं

थक कर टूट गए हैं बहरे देवों को आवाज़ लगाते
पथराई आँखों से रोते, पत्थर में देवत्व जगाते
सम्बन्धों की भीड़ मिली पर कोई एक मिला ना ऐसा
जिससे मन की पीड़ा कहते जिसको मन का हाल सुनाते

जीवन में सुख-दुख के बिगड़े अनुपातों से हार गए हैं
कुछ ऐसे मन हैं जो जग के संतापों से हार गए हैं

हार हुई तो जग ने अपनी रीत निभाई, खेद जताया
कुछ ने इक निष्कर्ष निकाला, कुछ ने अपना तर्क लगाया
पर टूटे मन की उधड़न को, किसने देखा, किसने तुरपा
कुछ ने अपनी आँख चुरा ली, कुछ ने केवल मुँह बिचकाया

कुछ ने बोला; "कायर हैं ये, हालातों से हार गए हैं"
कुछ ऐसे मन हैं जो जग के संतापों से हार गए हैं

यूँ थोड़ी था विपदाओं से लड़ जाने में सकुचाए थे
यूँ थोड़ी था संघर्षों से, बाधाओं से अकुलाए थे
छल की चाल समझ पाने का किंचित भी अभ्यास नहीं था
यूँ थोड़ी था रण में जाते, शस्त्र उठाते घबराए थे

सच तो ये है वो अपनों के आघातों से हार गए हैं
कुछ ऐसे मन हैं जो जग के संतापों से हार गए हैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

दीवारों को द्वार समझते हैं !

जो संघर्षों ने पाले हैं
जो सच को जीनेवाले हैं
चतुर सयानों की दुनिया में,
जो निश्छल भोले-भाले हैं
वो अक्सर अपने हक़ को उपकार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं

ग़ैरों से जीते अपनों के दल से ही हारे हैं
जब हारे हैं इस दुनिया के छल से ही हारे हैं
आँसू के जल से रहती है भीगी कोर नयन की
मन में अभिलाषा रखते हैं सबसे अपनेपन की
जग से झूठी आस रखे हैं
इक अंधा विश्वास रखे हैं
रेतीले दलदल को भी आधार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं

शीश झुकाते, अनुनय करते, गर इतना कर पाते
कृपापात्र बनते माँझी के और नदी तर जाते
पर अपने पौरुष से कुछ करने की ज़िद ठानी है
दुनियावालों को लगता है कितने अभिमानी हैं
जाने कितने पार उतारे
पर ख़ुद से हैं दूर किनारे
नाव डुबोते हाथों को पतवार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं

सम्बन्धों की ख़ातिर अपनी पूरी उम्र गलाते
ढाई आखर कोई मोल लगा दे, तो बिक जाते
केवल एक घरोंदा ख़ुद का और मुट्ठी भर दाने
इसकी ख़ातिर रख देते हैं गिरवी पंख, उड़ानें
पंख बहुत लाचार हुए हैं
उम्मीदों पर भार हुए हैं
पिंजरे का बढ़ना; नभ का विस्तार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

Friday, January 17, 2025

वीरता का धैर्य संधान !

हर प्रतिज्ञा तोड़कर, मन चाहता पहिया उठाना
किंतु रण में शांति का आह्वान करना पड़ रहा है

इक वचन का मान रखने के लिए सत्कार कब तक
क्रोध का प्रतिकार कब तक, धूर्त पर उपकार कब तक
एक से सौ तक गिनो शिशुपाल के अपराध लेकिन
कर सकोगे कृष्ण तुम भी गालियाँ स्वीकार कब तक

तीसरा दृग खोलकर मन चाहता तांडव मचाना
किन्तु कड़वा घूँट पी, विषपान करना पड़ रहा है

एक युग तक थे उपेक्षित, जो अभावों में पले थे
स्वप्न के हिमखंड सूरज की प्रतीक्षा में गले थे
जो जटिल थे, भोगते थे, वो हर इक वैभव जगत् का
हम सरल साधक समय की यातनाओं में जले थे

शांति के हित शस्त्र सारे घोल कर जब पी गये तब
अस्थियों को वज्र करके दान करना पड़ रहा है

रातरानी चुभ रही है, शूल मन को भा रहे हैं
झूठ के सारे समर्थक सत्य को झुठला रहे हैं
मद्यपों की चाकरी करते रहे हैं उम्र भर जो
मंदिरों की आज हमको रीतियाँ समझा रहे हैं

सागरों को सोख ले, सामर्थ्य है तूणीर में पर
वीरता को धैर्य का संधान करना पड़ रहा है

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

आप पागल तो नहीं हैं !

आप पागल तो नहीं हैं ,क्या जताए जा रहे हैं
मूक-बधिरों की सभा में, गीत गाए जा रहे हैं ?
आप पागल तो नहीं हैं !

कर रहे सब जिस तरह से तौर वह स्वीकार करिए
काम सारे बस स्वयं के लाभ के अनुसार करिए
क्या मिलेगा रात दिन यूँ बाग़ की रखवालियों से
आप भी बस हक़ जताकर, गंध का व्यापार करिए
कंटकों के बीच जाकर
निज करों पर चोट खाकर
बीज बोकर के सृजन के
और अपना हित भुलाकर
आप उपवन में नए बिरवे उगाये जा रहे हैं
आप पागल तो नहीं हैं !

डूबते को देख उसकी ओर निज पतवार करना
है बहुत दुर्लभ किसी का इस तरह व्यवहार करना
आज के इस दौर में भी कौन परहित सोचता है
चाहते सब बस किसी छल से स्वयं को पार करना
पाँव अंगद से जमाकर
हड्डियाँ अपनी गलाकर
थाह कोई ढूंढते हो
क्यूँ भँवर के बीच जाकर
आप औरों के लिए भी पुल बनाये जा रहे हैं
आप पागल तो नहीं हैं !

बोलिए सबके हितों की कामना से लाभ क्या है
मोह तजकर यूँ निरंतर साधना से लाभ क्या है
आप दुनिया के विचारों या चलन से सीखिए कुछ
आज जग में कर्म की आराधना से लाभ क्या है
सब धरोहर की धरा पर
सिर्फ़ अपना हक जताकर
चाहते निज घर बनाना
नींव के पत्थर चुराकर
आप खंडहर को पुनः मन्दिर बनाये जा रहे हैं
आप पागल तो नहीं हैं !

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

एक अंगद का चरण

सभ्यताओं का मरण भारी पड़ेगा
विष घुला वातावरण भारी पड़ेगा
दम्भ में डूबी हुई लंकापुरी पर
एक अंगद का चरण भारी पड़ेगा

©✍🏻 निकुंज शर्मा

तरक़्क़ी का हाई-वे

तरक़्क़ी के हाई-वे से थोड़ा नीचे उतरते ही पड़ता था एक गाँव, गाँव का नाम था विकसितपुर। चूँकि गांववालों का विश्वास था कि प्रयागराज में गंगा-जमुना के साथ सरस्वती की धारा भी मिलती तो है, पर दिखती नहीं है; इसलिए गाँव की मुख्य सड़क का नाम सरस्वती मार्ग रख दिया गया था।

दरअस्ल गांव की सड़क ने एक दिन गड्ढे को दिल में बसा लिया था इसलिए गड्ढे ने धीरे-धीरे अपने प्यार और आकार से सड़क को भर दिया था। पुरुष अपना पूरा अस्तित्व लेकर स्त्री को ढाँप लेता है और स्त्री समर्पित होते-होते एक दिन लुप्त हो जाती है। 


सड़क का समर्पण गांववालों की यात्रा के सुख का तर्पण बन गया। गाँव के लोग घर से ‘मैं निकला गड्डी लेके’ गाते हुए निकलते और कुछ दूर चलते ही ‘क्यूँ निकला गड्डी लेके' गाते हुए वापस लौट आते। सड़क और गड्ढे की प्रेम कहानी की सारी पीड़ा गांववाले अपनी देह की पोर-पोर में महसूस करते थे। नगर निगम भी प्रेमपंथी था इसलिए उसने कभी भी सड़क को इतना मज़बूत नहीं होने दिया कि गड्ढा प्रसाद उसके पास आने की हिम्मत न कर सके। 

सड़क देवी और गड्ढाप्रसाद के बीच दो जिस्म एक जान जैसा संबंध था और इस संबंध के कारण उधर से निकलने वालों के एक ही जिस्म से दो बार जान निकलने का ख़तरा रहता था! 


गड्ढाप्रसाद स्वभाव से बड़े ही खुले विचारों वाले थे और सड़कदेवी अपने आकार की तरह संकीर्ण। अक्सर प्रेम के गहन क्षणों में सड़क को आलिंगनबद्ध करते हुए गड्ढाप्रसाद कहते कि "प्रिये सड़क, तुम तो क्षणभंगुर हो और मैं शाश्वत! जब तुम नहीं रहोगी तो मैं आने वाली पीढ़ियों को तुम्हारी कहानी सुनाया करूंगा।" प्रेम में इस अहंकार की ध्वनि को सुनकर सड़क, भीतर से कई बार टूट चुकी थी। जब जब सड़क टूटती थी, तब तब गड्ढा अपना आकार बढ़ा लेता था। 

गड्ढाप्रसाद का बढ़ता वर्चस्व और अपना अस्तित्व विलुत्प होता देखकर बरसात आते ही सड़क देवी अज्ञातवास में चली जाती थी और गड्ढा प्रसाद मेघदूत के यक्ष की तरह पानी-पानी हो जाते थे। 


गड्ढाप्रसाद का ख़ालीपन दूर करने के लिए रोज सुबह, नगर निगम मिट्टी डालने का विचार करता और शाम तक उस विचार पर मिट्टी डाल के सो जाता। सड़कदेवी को कोई गड्ढाप्रसाद से अलग न कर दे इसलिए नगर निगम वाले किसी विकास को आसपास भी नहीं फटकने देते थे। क्योंकि विकास तो सबका था लेकिन सड़कदेवी के तो एक मात्र गड्ढाप्रसाद थे। गांव वाले समझ चुके थे कि गड्ढाप्रसाद का ख़ालीपन उस दिन दूर होगा जिस दिन भ्रष्टाचार की नीयत भर जाएगी।


© ✍🏻 निकुंज शर्मा 

एकाकी मन की चौखट

गहन अँधेरों का डेरा है, एकाकी मन की चौखट पर उम्मीदों के दीप जलाकर, अँधियारों से दूरी कर दो चतुराई के हाथ लुटे हो जैसे राही भोले भाले मेरे नि...