जो संघर्षों ने पाले हैं
जो सच को जीनेवाले हैं
चतुर सयानों की दुनिया में,
जो निश्छल भोले-भाले हैं
वो अक्सर अपने हक़ को उपकार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं
चतुर सयानों की दुनिया में,
जो निश्छल भोले-भाले हैं
वो अक्सर अपने हक़ को उपकार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं
ग़ैरों से जीते अपनों के दल से ही हारे हैं
जब हारे हैं इस दुनिया के छल से ही हारे हैं
आँसू के जल से रहती है भीगी कोर नयन की
मन में अभिलाषा रखते हैं सबसे अपनेपन की
जग से झूठी आस रखे हैं
इक अंधा विश्वास रखे हैं
रेतीले दलदल को भी आधार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं
शीश झुकाते, अनुनय करते, गर इतना कर पाते
कृपापात्र बनते माँझी के और नदी तर जाते
पर अपने पौरुष से कुछ करने की ज़िद ठानी है
दुनियावालों को लगता है कितने अभिमानी हैं
जाने कितने पार उतारे
पर ख़ुद से हैं दूर किनारे
नाव डुबोते हाथों को पतवार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं
सम्बन्धों की ख़ातिर अपनी पूरी उम्र गलाते
ढाई आखर कोई मोल लगा दे, तो बिक जाते
केवल एक घरोंदा ख़ुद का और मुट्ठी भर दाने
इसकी ख़ातिर रख देते हैं गिरवी पंख, उड़ानें
पंख बहुत लाचार हुए हैं
उम्मीदों पर भार हुए हैं
पिंजरे का बढ़ना; नभ का विस्तार समझते हैं
आँखे मूंदे, दीवारों को द्वार समझते हैं
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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