Friday, January 24, 2025

सृजन की लौ

भावनाओं की धरा पर
लेखनी का हल चलाकर
इस अँधेरी रात में सूरज उगाना चाहते हैं
हम सृजन की लौ जगाना चाहते हैं 

बे-अदब कुछ आँधियों से इस इमारत को बचाना
साथ मिलकर के दर-ओ-दीवार को, छत को बचाना
काव्य के इस गाँव की कोशिश हमेशा से रही है
जो मिली हमको बुजुर्गों की विरासत को बचाना
हिल रही बुनियाद का पत्थर बचाना चाहते हैं
हम सृजन की लौ जगाना चाहते हैं 

इक नयी उम्मीद लेकर के धरा पर भोर लौटे
फिर विचारों को दिलों तक जोड़ने का तौर लौटे
गीत ग़ज़लों में कहीं भी द्वेष या उन्माद ना हो
चाह इतनी है सृजन का फिर पुराना दौर लौटे
इक नए अंदाज़ में जादू पुराना चाहते हैं
हम सृजन की लो जगाना चाहते हैं

दौर जिसमे लेखनी सिंहासनों पर प्रश्न ताने
दौर जिसमे लेखनी फिर सिसकियों का मर्म जाने
दौर जिसमे लेखनी दरबार में गिरवी नहीं हो
दौर जिसमें लेखनी बस सत्य को ही धर्म माने

झूठ के नेपथ्य से पर्दा उठाना चाहते हैं
हम सृजन की लो जगाना चाहते हैं

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

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