इस कारण ही ठुकराए हैं, मैंने महलों के आमंत्रण
दरबारों में गर रहता तो, गूँगा होकर रहना पड़ता
वो तो खुद ही प्यासा निकला, जिसको मैंने सागर समझा
गरल छुपाये था वो मन में, जिसको मधु की गागर समझा
अँधियारों की अगुवाई में, उसने छल हर बार किया है
घोर निशा छाने पर मैंने, जिसको एक दिवाकर समझा
इस कारण ही छोड़ दिया है मैंने जग को गीत सुनाना
अँधियारों के चाकर जो हैं, भोर उन्हीं को कहना पड़ता
हमनें कब स्वीकार किये हैं, वाणी पर दुनिया के पहरे
हम इस जग के अभियोगों पर, प्रश्न उठाने वाले ठहरे
जिनको छल करना आता था उनको जग ने साधू माना
हमनें सच बोला तो उस पल बन बैठे सब गूँगे बहरे
इस कारण ही छोड़ दिया है, मैंने मठ में आना जाना,
जो स्वारथ के घोर पुजारी, देव उन्हीं को कहना पड़त
जो अपमान करे तृष्णा का उस पनघट पर जाता कैसे
चतुराई के आगे निश्छल मन के गीत सुनाता कैसे
कीकर को चन्दन लिख दे जो ऐसी अपनी कलम नहीं है
याचक पर हँसने वाले को दानी मैं बतलाता कैसे
इस कारण ही छोड़ चुका हूँ, अहसानों वाली नौका मैं
ले जाता जिस ओर खिवैया, छोर उसी को बहना पड़ता
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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