Friday, January 17, 2025

वीरता का धैर्य संधान !

हर प्रतिज्ञा तोड़कर, मन चाहता पहिया उठाना
किंतु रण में शांति का आह्वान करना पड़ रहा है

इक वचन का मान रखने के लिए सत्कार कब तक
क्रोध का प्रतिकार कब तक, धूर्त पर उपकार कब तक
एक से सौ तक गिनो शिशुपाल के अपराध लेकिन
कर सकोगे कृष्ण तुम भी गालियाँ स्वीकार कब तक

तीसरा दृग खोलकर मन चाहता तांडव मचाना
किन्तु कड़वा घूँट पी, विषपान करना पड़ रहा है

एक युग तक थे उपेक्षित, जो अभावों में पले थे
स्वप्न के हिमखंड सूरज की प्रतीक्षा में गले थे
जो जटिल थे, भोगते थे, वो हर इक वैभव जगत् का
हम सरल साधक समय की यातनाओं में जले थे

शांति के हित शस्त्र सारे घोल कर जब पी गये तब
अस्थियों को वज्र करके दान करना पड़ रहा है

रातरानी चुभ रही है, शूल मन को भा रहे हैं
झूठ के सारे समर्थक सत्य को झुठला रहे हैं
मद्यपों की चाकरी करते रहे हैं उम्र भर जो
मंदिरों की आज हमको रीतियाँ समझा रहे हैं

सागरों को सोख ले, सामर्थ्य है तूणीर में पर
वीरता को धैर्य का संधान करना पड़ रहा है

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

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