जग के मायामृग के पीछे, भाग रहे हो शर को खींचे
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !
कंचनमृग की चाहत तुमको काँटों के पथ पर ले आयी
तुमको साथ नहीं आना था, तुमको साथ मगर ले आयी
अगर विचारो तो पाओगे जीवन का मकसद जीवन है
तुमको कौन डगर जाना था तुमको कौन डगर ले आयी
पर्णकुटी से सुख की सिय को दुख का रावण लूट गया है
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !
मृगनयनी सिय, हिय का चैना, क्या कुछ तुमसे लीना सोचो
क्या इतना मुश्किल था जितना आज हुआ है जीना सोचो
स्वप्न अधूरे छूटे अब तो हर इक पल पीड़ा का पल है
इस मायावी जग के मृग ने कितना कुछ है छीना सोचो
अब तो सपनों के दृग से भी कोई झरना फूट गया है !
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !
होने को तो नफ़रत पी जाने वाले दाधीच बहुत हैं
पर उन ऋषियों को छलने वाले भी अपने बीच बहुत हैं
कंचन की काया के भ्रम में पंचवटी से दूर ना जाना
वेश बदल कर विचरण करते इस जग में मारीच बहुत हैं
और छला जाना बाक़ी है? या मन का भ्रम टूट गया है !
रे वनवासी ! ठहरो ! सोचो..पीछे क्या कुछ छूट गया है !
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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