Friday, January 24, 2025

समय के देवता का मान

हम समय के देवता का मान रखने के लिए ही
इक अधूरी प्यास लेकर पनघटों से लौट आये

एक अनचाही डगर में डगमगाते पाँव धरके
और नयनों के घटों में आँसुओं का नीर भरके
इक अभागे स्वप्न ने चाहा कि उसको रोक लूँ पर
जा चुका था वो हमारी देह को निष्प्राण करके

इक नदी के तीर जलती लकड़ियों के साथ में ही
एक दुनिया फूँक कर हम मरघटों से लौट आये

गीत का मधुमास लेकर, प्राण का उल्लास लेकर
दूर हमसे हो गए हैं सुख सभी संन्यास लेकर 
उम्र का आकाश पीड़ा के कुहासे में ढका है
स्वप्न सब निश्छल हमारे जी रहे वनवास लेकर

सब मनोरथ हो नहीं सकते कभी पूरे, तभी तो
बाँसुरी के स्वर सदा वंशीवटों से लौट आये

जब कभी निकलें सफ़र में काटता है पैर कोई
और वो अपना नहीं है और ना ही ग़ैर कोई
कौन कारण कौन कारक सत्य यह भी है उजागर
ठन गया है क्या विधाता का हमीं से वैर कोई

धीर हारा है न हारेगा कभी संकल्प मन का
बोलकर ये बात मठ की चौखटों से लौट आए

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

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