Friday, January 24, 2025

द्रोण गर स्वीकार करते

क्या कठिनतम यह घड़ी है वेदना कितनी बड़ी है
नेह का सूरज ना जागा हाय यह जीवन अभागा
बस यही सोचा किए थे श्वान मुख में वाण भरते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

अनसुनी विनती, उपेक्षा, नैन में जल और क्या है
देव निश्चल साधना का तुम कहो फल और क्या है
जब कटा मेरा अँगूठा तब बना है श्रेष्ठ अर्जुन
है नहीं ये भी अगर छल तो भला छल और क्या है

भेद पुतली मीन की हम भी नए इतिहास गढ़ते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

याचना निष्फल रही सब था यही बस मर्म अपना
साधना, अभ्यास, निष्ठा था यही बस कर्म अपना
जो किया अर्जित लगन से कर दिया तुमको समर्पित
किन्तु क्या तुमने निभाया था गुरु का धर्म अपना

यह धनुष यह शर हमारे क्यों भला जग को अखरते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

पाँव में पाहन बँधे थे यह नहीं था पर नहीं थे
प्रश्न कितने थे ह्रदय में पर कहीं उत्तर नहीं थे
हो धनुष टंकार या हों युद्ध में करतब हमारे
श्रेष्ठ हो या ना किसी से हाँ मगर कमतर नहीं थे

यह स्वयं से बोलते हैं राह में गिरते संभलते
हम धनुर्धर कम नहीं थे द्रोण गर स्वीकार करते

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

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