चलते-फिरते, हँसते-रोते
खाते-पीते, जगते-सोते
निंदा रस के घूँट लगाकर
नफरत के घट ढोते-ढोते
रात-दिवस करते रहते हो; इधर निरादर, उधर बुराई
थकन नहीं होती क्या भाई ?
खाते-पीते, जगते-सोते
निंदा रस के घूँट लगाकर
नफरत के घट ढोते-ढोते
रात-दिवस करते रहते हो; इधर निरादर, उधर बुराई
थकन नहीं होती क्या भाई ?
घृणा, अवज्ञा, दोषारोपण, निंदा, वैर, कुढ़न, मक्कारी
इन बेचारे दो कंधो पर, कितनी सारी ज़िम्मेदारी
औरों को भी हक़ है थोड़ा
उनकी ख़ातिर कुछ ना छोड़ा
केवल तुम ही कर दोगे क्या सब के हिस्से की भरपाई
थकन नहीं होती क्या भाई ?
पल-पल इतने स्वांग रचाते, नुक्ताचीह्नी करते-करते
ऊब नहीं जाते हो क्या तुम दुनिया के कानों को भरते
थोड़ा सा तो सुस्ता लेते
राग नया कोई गा लेते
आख़िर कब तक गाओगे तुम केवल चुगली की चौपाई
थकन नहीं होती क्या भाई ?
उत्सव को संताप बना दे, इतने ज़्यादा दक्ष तुम्हीं हो
बगुले के अवतार तुम्हीं हो, गिद्धों के समकक्ष तुम्हीं हो
कपट, प्रपंचों से अवगत हो
सब पापों में पारंगत हो
इतने गुण पाए हैं तुमने, कठिन बहुत है यार बड़ाई
थकन नहीं होती क्या भाई ?
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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