जिसको अपना साथी समझा,
रण का हर कौशल सिखलाया
समरांगण में रथ को हाँका,
और विजय का पथ दिखलाया
रण का हर कौशल सिखलाया
समरांगण में रथ को हाँका,
और विजय का पथ दिखलाया
कब सोचा था उसके धनु का मेरी ओर सधा शर होगा
मुझको भान नहीं था इक दिन उसका वार मुझी पर होगा
मुझको भान नहीं था इक दिन उसका वार मुझी पर होगा
ढोंग भरे आघात सहे तो मन को यह संताप हुआ है
इक अंधा विश्वास जताकर जैसे कोई पाप हुआ है !
सच बोलूँ तो कुछ शब्दों की परिभाषाएँ बदल गयी हैं
निश्छलता अपराध हुई है, भोलापन अभिशाप हुआ है
मैं अनजान रहा इस सच से छल में डूबी इस दुनिया में
निष्ठा, प्रेम, समर्पण, संबल, सब कोरा आडम्बर होगा
मुझको बोध नहीं था रण में मेरा होना यूँ अखरेगा
कोई रावण वेश बदलकर विश्वासों का हरण करेगा
अचरज है मेरे खेमे से मुझको भूशायी करने को
विषबाणों की वर्षा होगी, षड्यंत्रों का खेल चलेगा
ख़बर नहीं थी सत्य अकेला जब जूझेगा अन्यायी से
चक्रव्यूह में रथ का पहिया पहले से ही जर्जर होगा
अपनेपन की नदिया के स्वारथ में डूबे तट निकलेंगे
कुंठाओं के मुख पर झूठी निजता के घूंघट निकलेंगे
ज्ञात नहीं था ऐसे चतुर सयाने मुझसे टकरायेंगे
जो ऊपर मधु जैसे होंगे, भीतर विष के घट निकलेंगे
जिन हाथों को हाथ थमाकर, तूफानों से प्राण बचाये
जब नौका उस पार लगेगी उन हाथों में पत्थर होगा
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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