नाद में हुँकार लेकर, व्योम सा विस्तार लेकर
भावनाओं के धनुष की कौंधती टँकार लेकर
लेखनी के ताप से पर्वत गलाने का समय है
गीत गाने का समय है !
भावनाओं के धनुष की कौंधती टँकार लेकर
लेखनी के ताप से पर्वत गलाने का समय है
गीत गाने का समय है !
एक युग से दिनकरों पर रात का पहरा रहा है
आँधियों का डर चराग़ों पर बहुत गहरा रहा है
एक अरसे से विचारों की प्रभा को क़ैद करके
यह तमस बेबस उजालों के सभी हक़ खा रहा है
साथ मिल उजियार का परचम उठाने का समय है
गीत गाने का समय है !
चुप्पियों को साध लेने से बहुत संताप होगा
भूलना युग धर्म अपना गीत पर अभिशाप होगा
जिस समय सिंहासनों से प्रश्न करना हो ज़रूरी
उस समय में लेखनी का मौन रहना पाप होगा
पत्थरों को आज फिर दर्पण दिखाने का समय है
गीत गाने का समय है !
सत्य का रथ हाँकने का बाज़ुओं में दम नहीं है
हर किसी में एक "मैं" है, पर कहीं भी "हम" नहीं है
निज हितों का ही भरण जिनकी रही है प्राथमिकता
देश की इस दुर्दशा में दोष उनका कम नहीं है
दीमकों से इस विरासत को बचाने का समय है
गीत गाने का समय है !
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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