Friday, January 24, 2025

शायद राम कभी ना आयें

एक अभागा, निष्ठुर जग में

मौन, प्रतीक्षारत हूँ मग में 
तन घायल है, मन जर्जर है
सपने टीस रहे हैं दृग में
हो सकता है जग के तारक मेरे धाम कभी ना आयें 
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें

खुशियाँ, वैभव, प्रियतम, सावन, 
प्रेम, मिलन, उत्सव, अपनापन
इक मनचाहा तन बाहों में
सागर का तट, फुर्सत के क्षण 
हो सकता है इस जीवन में ऐसी शाम कभी ना आयें
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें

मेरी नज़्में, गीत, रुबाई
मुक्तक, छंद, ग़ज़ल, कविताई
जिनमें केवल सतत प्रतीक्षा
जिनमें केवल पीर समाई 
दुख का ग्रन्थ बनें पर शायद सुख के काम कभी ना आयें
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें

कब राहों में फूल रहेंगे
तय है केवल शूल रहेंगे
जो मुझको अभिजीत बनायें
जो मेरे अनुकूल रहेंगे 
संभव है जीवन के रण में वो परिणाम कभी ना आयें
मैं वो पत्थर जिसको छूने शायद राम कभी ना आयें 

© ✍🏻 निकुंज शर्मा

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