हे महासागर!
सुनो, कर जोड़ तुमसे,
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ
इन करों ने बस दिया, संसार से कुछ भी न मांगा
आदमी क्या; देवता के द्वार से कुछ भी न मांगा
आज तक उपकार, सेवा, दान, परहित ही किया है
इस तरह पहले कभी अधिकार से कुछ भी न मांगा
त्याग आया राज-वैभव-धाम; रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ
प्रेम की प्रस्तावना भी तो बहुत दूभर नहीं है
राह की सम्भावना भी तो बहुत दूभर नहीं है
लांघना मरजाद दुष्कर कृत्य है मुझ-से व्रती को
और सागर लांघना भी तो बहुत दूभर नहीं है
रीतियों को बिन किये बदनाम, रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ
प्रेम की इस याचना को अन्यथा मत मान लेना
"बस अहम् ही मुख्य है" -ये भी प्रथा मत मान लेना
सोख दे पाताल, इतना है अभी सामर्थ्य शर में
शिष्टता को राम की असमर्थता मत मान लेना
मांगता किंचित नहीं संग्राम, रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ
दो किनारों को मिलाने में अहित कुछ भी नहीं है
और अनुकम्पा दिखाने में अहित कुछ भी नहीं है
इस क्रिया से नीर कुल का मान अक्षत ही रहेगा
सेतु सागर पर बनाने में अहित कुछ भी नहीं है
श्रेष्ठ है इस यत्न का परिणाम, रस्ता मांगता हूँ
मैं सिया का राम, रस्ता मांगता हूँ
© ✍🏻 निकुंज शर्मा
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